शनिवार, 24 अप्रैल 2010


रीत है कैसी ये ज़माने की

जो सजा मिलिती है यहाँ दिल लगाने की

ना बिठाना किसी को दिल में इतना की

phir दुआ मंगनी पड़े भुलाने की

आप का दोस्त अमानुल्लाह khan

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